Friday, 17 April 2020

[ आधुनिक ] समय और समाज 2020


                    आधुनिक समय और समाज


समय और समाज...
........की यथा स्थिति आज किसी से भी अनभिज्ञ तो बिल्कुल
भी नहीं। और निश्चित ही कहीं न कहीं हम सभी जानते होंगे कि इसके लिए उत्तरदायी कारक और कर्ता कौन-कौन है और क्यों हैं जब यह प्रश्न सामने आता है तो एक बारगी यह सोचने पर विवश हो ही जाना पड़ता है क्या करें ! पर हाँ इस विवशता के सूत्रधार भी यदि मैं कहूँ की हम ही हैं, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं।

यानी जिस प्रकार भी है वास्तव में हम सभी आधीन हैं अपनी ही स्वजरूरतों के अंतर्गत, अतएव अपनी इस कारक विवशता को हम छुपाये भी नहीं छुपा सकते जिससे हम धीरे धीरे आंशिक रूप में घटते हुए समय की धारा में बह रहे हैं व बहते ही चले जा रहे हैं।

...........  और यही सबसे बड़ी गहन चिंता की विषय वस्तु है। मुझको अनुमान नहीं मैं जो लिख रहा उसको आप कितना समझ सकते हैं पर इतना तो पता है कि ये विषय एक अपने में ही सागर है जिसके भीतर तमाम पश्न उत्तर, व चिंता व्यथा, आशा निराशा आदि समाये हैं ।  और हमें यह तो भलीभाँति ज्ञात होगा कि समय को हम या अन्य कोई रोक भी नहीं सकता ।

 इसलिये इसको अनुसरित करते हुए यदि हम आज मानव समाज की महामारी के समान बढती अवश्यकताओं पर गौर फरमाएं तो स्थिति शीशे के समान बेहद ही स्पष्ट प्रदर्शित होकर सामने आ जाती है। जबकि समय निरन्तर ही अबाध या निर्बाध रूप में अपनी ही गति से अपनी ही मौज में गतिमान या चलायमान रहता है। जो किसी के रोके रुकता नहीं।

 इसलिये मानव समाज आज जितना भी चिंतनशील और ये जो उसकी  विवशता रूपी व्यथा है, का भी व्यथित,चिंतित होना भी जायज है।

आज के परिवेश अनुसार ....
हमें निश्चित ही इसे अनुभव करने की अति आवश्यकता है, अन्यथा परिणाम निश्चित ही बेहद भयानक होने वाले हैं आने वाले समय में।
किन्तु इसे समाज की अभागदशा ही कहेंगे कि, वह सब कुछ जानते हुए भी अपनी दोनों आंखों पर पट्टी बाँधे बैठा तमाशबीन बना निहार रहा है मानो समय के भीतर अब भी उसे आशा की कोई किरण नजर आ रही हो।

आशावादी होना कदापि गलत नहीं किन्तु सम्पूर्ण रूप से निर्भर हो जाना कदापि उचित भी तो नहीं। इसलिये  यह समझना अत्यंत आवश्यक हो गया है कि हम आखिर चाहते क्या है, क्या हमको वो आशावादी बनना है जो स्वयं ही के पैरों को ही बन्धनयुक्त कर दे या उस दिशा का रुख करना सही रहेगा जहाँ पर हम अपनी गलतियों का मनन कर खुद को समाज को उसे सुधारने का एक मौका प्रदान कर सकते हैं। फलस्वरूप सम्भव है कि आशाओं की आशा भी सहायता प्रदान करे। अन्यथा कोई फायदा नहीं।

आज समय जिस प्रकार समाज को पीछे छोड़कर आगे निकलता जा रहा है वह निश्चित ही समाज के हितों के लिए किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता अतः हमको यानी समाज को पुनः पुनर्विचार तो अवश्य करना ही होगा यदि वह अपना अस्तित्व बनाये रखना चाहता है।  पर शायद यह समाज के लिए इतना भी आसान नहीं रहने वाला। इसलिये समाज को खुद को कठोर से कठोरतम निर्णयों हेतु स्वयं को दृढ़ बनाना होगा। जिससे वह कम से कम निर्णयन छमता को तो सुदृढ़ कर सकें।


यहाँ देखने समझने व साथ साथ विचार करने वाली बात यह है कि हम स्वयं और समाज, समय के अनुरूप क्यों नहीं हुए हम सदैव विपरीत ही क्यों चलते गये, चलते गये। अब जब ठोकर लगी तब ही अहसास क्यों ?
जब हम अपने कृत्यों में मशगूल रहे, अप्राकृतिकता को बढ़ावा दे रहे थे, अनेकों प्रकार से प्रकृति को ठेंगा दिखा रहे थे तब हम कहाँ थे आखिर !  उत्तर हम यहीं थे सब कुछ सामने था व स्वेच्छापूर्वक हो रहा था। बस हमने दूसरे पक्ष के लिये अपनी आंखें मूंदकर आनन्द में बस मग्न थे।

क्या हम यह भूल बैठे थे कि किसी भी वस्तु,कार्य,निर्णय, आदि सभी के यदि यदि एक पहलू वह है जो हमारे सामने है तो ध्यान दीजिये यह सिर्फ इतना ही नहीं चूँकि यहाँ यदि हमको हमारे उद्देश्यानुरूप एक पहलू मात्र ही प्रदर्शित है तो निश्चित ही स्वाभाविक है कि उसका दूसरा पक्ष भी अवश्य होगा। अतः
सहज रूप में सम्भव है कि हमारे सामने जो प्रदर्शित होगा वह हमारे आशानुरूप होगा इसलिये यहाँ यदि हम उसके दूसरे भाग की ओर ध्यान आकृष्ट करें तो निश्चित ही वह हमारे आशानुरूप कदापि नहीं होने वाला। जो कि शनैःशनैः विध्वंशकारी सिद्ध होने की ओर बढ़ता रहता है।

क्योंकि हमारा ध्यान तो उन आमोद प्रमोद की गतिविधियों में रमा रहता है व इतना अत्यधिक रमा हुआ होता है कि उसे उस द्वितीय पक्ष की ओर देखने व ध्यान देने के लिए रत्ती भर की फुर्सत ही नहीं।  और जिसका परिणाम होता है कि जो समाज समय-समय पर प्रकृति के प्रकोपों व दुष्परिणामों का निरन्तर सामयिक रूप से शिकार बनता रहता है, जिसका परोक्ष व अपरोक्ष रूपी परिणाम
हमारा समाज व हमारी वसुधा को और चहुँओर व्याप्त हमारे वातावरण के आवरण पर पड़ता है और जिसका सीधे तौर पर आघात समाज के जीवन पर पड़ता है व इस धरा के चराचर जीवित व सजीव वस्तुओं पर पड़ता है।

आज समाज अपने वर्तमान तुच्छ उद्देश्यों के पूर्ति रूपी लोभ के आवेश में अपने ही प्राकृतिक भविष्य का ही विनाश करने पर आमादा हुआ है। वह निरन्तर लोभ के वशीभूत होकर अपने स्वाभाविक प्राकृतिक भविष्य को ही दाँव पर लगाता जा रहा है और जिसकी उसे तनिक भी परवाह नहीं किन्तु कब तक ? 


स्वाभाविक है कि वह दिन दूर नहीं जब समय की गंगधारा रूपी बहाव में सब कुछ बह चुका होगा और वापसी के समस्त दरवाजे बंद हो चुके होंगे। और ऐसा कर के एक बार पुनः समय अपने शक्तिबल का अहसास कराएगा मानो कह रहा होगा कि यदि सम्भले तो उत्तम अन्यथा समय व्यतीत होने के उपरान्त मैं
किसी का इंतजार नहीं करता। इसलिये हे समाज "जब जागो तभी सवेरा" उक्त पंक्तियों के माध्यम से मैं एक बार फिर से अवसर बोध करा देना चाहता हूँ।  जिसके उपरांत पश्चाताप का प्रश्न ही न उठ सके।


क्योंकि वह समय जो सम्भलने का था वह तो निकल गया और हम सब को ये पता है....
कि गुजरा हुआ वह वक्त तो कभी कदापि और किसी कीमत पर वापस लौट कर नहीं आ सकता इसलिये यह सोचना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि समय की उपेक्षा कर के हमारा समाज आखिर ऐसी कौन सी निधि प्राप्त कर लेना चाहता है कि उसे अपने समस्त निर्णयों में सिर्फ और सिर्फ नाक की सीध वाली रेखा ही दृष्टवत होती है आखिर वह अपने वर्तमान को बनाने के चक्कर में भविष्य से खिलवाड़ करने पर आखिरकार क्यूँ उतारू है यह तो उसे सोचना ही होगा।

अब यह तो स्पष्ट है कि दोष क्या है क्यों है और कौन, किसका और कितना दोषी है।
इसलिये अब जरूरत है तो बस यह समझने की समय का चक्र तो अबाध है अतः वह तो सतत निर्बाध रूप में चलता ही जायेगा चलता चला जायेगा। इसलिए सोंचना होगा कि हम अब अग्रकाल में नवीन सुधारात्मक परिवर्तनों के लिये क्या करना है। 

अब ये गेंद फिर से समाज के अपने हाथों में ही है इसलिए तय भी उसको स्वयं ही करना है कि वह समय के सापेक्ष भविष्य को किस प्रकार देखता है इसलिये कि "समय और समाज" सदैव दोनों का आपसी सम्बन्ध किस प्रकार स्थापित है और समाज के कृत्य समय की रूपरेखा के अंतर्गत कहाँ पर किस स्तर पर होंगे? समस्त बातें तो फिलहाल "काल के गाल" में स्थित है।




अतः आज समाज को अपने स्वकृत्यों के प्रति यथाशीघ्र सतर्कतापूर्वक  और चैतन्य मस्तिष्क से पुनर्विचार करना ही होगा।  धन्यवाद 🙏 ।


-लेखनी
सौरव भट्‌ट